रविवार, 7 मई 2017

कवि हरिव्यासदेव

By : अशर्फी लाल मिश्र
                                                                अशर्फी लाल मिश्र 

जीवन परिचय :
श्री हरिव्यासदेव निम्बार्क सम्प्रदाय के अत्यधिक प्रसिद्ध  कवि हैं। इनके समय के विषय में साम्प्रदायिक विद्वानों में दो मत हैं। प्रथम मत वालों के अनुसार हरिव्यासदेव जी समय वि० सं ० १४५० से १५२५ तक है।
 (युगल शतक :सं ० ब्रजबलल्भ शरण :निम्बार्क समय समीक्षा :पृष्ठ ८ )
दूसरे मत वाले इनका समय कुछ और पीछे ले जाते हैं। उनके विचार में वि ० सं ० १३२० ही श्री हरिव्यासदेव का ठीक समय है। (निम्बार्क माधुरी :ब्रह्मचारी बिहारीशरण :पृष्ठ २३ )ये दोनों ही मान्यतायें साम्प्रदायिक ग्रंथों अथवा अनुश्रुतियों पर आधारित हैं।बलदेव उपाध्याय ने एक नवीन दंग से इनके समय का अनुमान लगाया है। उनके विचार से रसिक गोविन्द (निम्बार्क संप्रदाय के एक आचार्य )का काल जो हरिव्यासदेव से आठवीं पीढ़ी में हुए हैं,१८५८ विक्रमी संवत है। अतः यदि २५ वर्ष भी एक पीढ़ी के लिए छोड़े जायँ तो इनका समय वि०सं० १६५ ८ के आसपास बैठता है। (भागवत-सम्प्रदाय:३२५-३२६ ) श्रीभट्ट जी के समय को देखते हुए यह अनुमान उचित प्रतीत होता है।
श्री हरिव्यासदेव का जन्म गौड़ ब्राह्मण कुल में हुआ था। आप श्री भट्ट के अन्तरंग शिष्यों में से थे। ऐसा प्रसिद्ध
है कि पर्याप्त काल तक तपस्या करने के बाद आप दीक्षा के अधिकारी बन सके थे। श्री नाभादास जी की भक्तमाल में हरिव्यासदेव जी के सम्बन्ध में निम्न छप्पय मिलता है:
खेचर   नर   की   शिष्य   निपट   अचरज यह आवै। 
विदित     बात    संसार    संतमुख   कीरति   गावै।।
वैरागिन     के   वृन्द   रहत    संग   स्याम   सनेही। 
ज्यों   जोगेश्वर    मध्य     मनो   शोभित    वैदेही।।
श्रीभट्ट  चरन  रज परसि के सकल सृष्टि जाकी नई। 
श्री हरिव्यास तेज हरि भजन बल देवी को दीक्षा दई।। (छप्पय सं ० ७७ )
रचनाएँ :
श्री हरिव्यासदेव की संस्कृत में चार रचनाएँ उपलब्ध हैं ;

  1. सिद्धान्त रत्नांजलि ~ दशश्लोकी की बृहत टीका 
  2. प्रेम भक्ति विवर्धिनी ~  निम्बार्क अष्टोत्तर शत नाम की टीका 
  3. तत्वार्थ पंचक 
  4. पंच संस्कार निरूपण 
किन्तु ब्रजभाषा में हरिव्यासदेव जी की केवल एक रचना महावाणी  उपलब्ध होती है। 

माधुर्य भक्ति :
महावाणीकार  के उपास्य राधा-कृष्ण प्रेम-रंग में रंगे हैं। दोनों वास्तव में एक प्राण हैं ~~ किन्तु  उन्होंने दो विग्रह धारण किये हुए हैं। वे सदा संयोगावस्था में रहते हैं क्योंकि दूसरे का क्षणिक विछोह भी उन्हें सह्य  नहीं है। अल्हादनी शक्ति-स्वरूपा राधा का स्थान श्रीकृष्ण की अपेक्षा विशिष्ट  है। 
मनमोहन वस कारिनी नखसिख रूप रसाल। 
सो स्वामिनि नित गाइए रसिकनि राधा बाल।। (महावाणी :उत्साह सुख :पृष्ठ ५९  )
प्रिया-प्रियतम के परस्पर प्रेम का स्वरुप भी विलक्षण है। इस प्रेम के वशीभूत वे नित्य-संयोग में नित्य-वियोग की अनुभूति करते है। 
सदा अनमिले मिले तऊ लागे चहनि चहानि। 
हौं बलि जाऊँ अहु कहा अरी अटपटी  बानि।। (महावाणी :सहज सुख :पृष्ठ १५२ )
उनकी स्थिति यह है कि परस्पर छाती से छाती मिली है किन्तु फिर भी वे एक दूसरे में समा जाने के लिए व्याकुल हैं। पर राधा- कृष्ण का यह प्रेम सर्वथा विकार-शून्य है। इसी कारण वह  मंगलकारी ,आनन्द प्रदान करने वाला और सुधा की वर्षा करने वाला है। 
सदा यह राज करो बलि जाऊँ दंपति को सुख सहज सनेह। 
सुमंगलदा मनमोदप्रदा रसदायक लायक सुधा को सो मेह।। (महावाणी :पृष्ठ १५२ )
दोनों के इस प्रेम की चरम अभिव्यक्ति सूरत में होती है। इसीलिये महावाणी में में विहार-लीन नवल-किशोर के ध्यान का निर्देश किया गया है ~
सब निशि बीती खेल में तउ उर अधिक उमंग। 
ऐसे नवलकिशोरवर ,    हियरे       बसौ अभंग।। (महावाणी :पृष्ठ :२४ )
युगलकिशोर की सभी लीलाएँ ~  विहार ,झूलन,मान,रास आदि भक्त का मंगल करने वाली हैं। अतः इस सलोनी जोड़ी के प्रेम रस में अपने को रमा देना ही रसिक भक्तों की मात्र कामना है अर्थात वः चाहता है कि वह सदा उपास्य-युगल की मधुर- लीलाओं का दर्शन करता रहे।
अरी मेरे नैननि को आहार। 
कल न परे पल एक  बिना मोहिं अवलोके सुखसार।।
सकल मनोरथ सफल होत तब करत हिये संचार। 
श्रीहरिप्रिया प्रान -जीवन-धन को यह सूरत विहार।।   
कवि जब पूर्ण मनोवेग से राधा-कृष्ण की इन विहार लीलाओं का गान करता है तो उस गान में कविता के सभी तत्वों का आ जाना अस्वाभविक नहीं है ~
मनमोहन    मनमोहनी  जू     भीने   रंग     अपार। 
 मोहन मंदिर मध्य करें दोउ सुख सों सूरत विहार।।
गुननिधि  गोरी  सेज  पर  जु सोये दोउ    सुकुमार।
मनहु दवी  ह्वै  अचल चंचला घनश्यामल के भार।।
रसिक  रसीली   राखियेजु  लै  उरजन  के  आधार। 
अधर सुधारस प्यावति पिय को प्यारी परम् उदार।।
तन मन मिलि एकत भये हो विच न समावत हार। 
निज दासी जहां निकट निहारति श्री हरिप्रिया सुख सार।। (महावाणी :पृष्ठ ४९ )
राधा-कृष्ण   की मधुर लीलाओं  का दर्शन उपास्य-युगल की सेवा करते हुए भी संभव है। अतः भक्त सहचरी रूप में प्रिया -प्रियतम की सेवा करते हुए सदा उनके समीप बना रहना चाहता  है। प्रिया -प्रियतम की रूचि को लक्ष्य में रख कर उनकी विविध  लीलाओं की व्यस्था करना तथा उनके भोजन शयन ,श्रृंगार आदि की चिन्ता करना सखियों का सेवा धर्म है।
 सखी सबै नवरंग-रंगीली जानत हिये को हेत। 
सोइ सोइ प्रकट दिखावत अनुदिन सब भाँतिन सोन सब  देत।।(महावाणी :पृष्ठ १७६ )


  स्रोत साभार :ग्रन्थ अनुक्रमाणिका 

  • महावाणी :श्री हरिव्यासदेव 
  • भक्तमाल :नाभादास
  •  ब्रजभाषा के कृष्ण- काव्य में माधुर्य भक्ति :डॉ रूपनारायण :हिन्दी अनुसन्धान परिषद् दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली के निमित्त :नवयुग प्रकाशन दिल्ली -७ 
  • युगल शतक :सं ० ब्रजबलल्भ शरण :निम्बार्क समय समीक्षा
  • भागवत-सम्प्रदाय
  • निम्बार्क माधुरी :ब्रह्मचारी बिहारीशरण

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